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मुख्य व्यापारिक स्थिति

मुख्य व्यापारिक स्थिति

अर्थव्यवस्था

झारखंड की राजधानी रांची, तीव्र गति से बढ़ रही है और विस्तार कर रही है। वृद्धि हुई आर्थिक गतिविधियों और बुनियादी ढांचे के विकास के कारण व्यापक शहरीकरण हुआ है, जिसके परिणामस्वरूप शहरी और अर्ध-शहरी क्षेत्रों का विस्तार हो रहा है। भूमि उपयोग नीतियों में बदलाव के कारण शहर के आसपास के इलाकों में अधिक क्षेत्रों को जोड़ा जा रहा है। रांची को पूंजी की स्थिति के साथ सम्मानित होने के बाद, बढ़ती आबादी की आवश्यकताओं को पूरा करने की आवश्यकता है।

आसानी से उपलब्ध जनशक्ति , प्रतिष्ठित तकनीकी , प्रबंधन और शैक्षिक संस्थानों , अच्छी परिवहन और संचार सुविधाएं और बिजली की स्थिति में सुधार, उद्यमियों के लिए आरआईए (रांची औद्योगिक क्षेत्र) क्षेत्र आकर्षक बनाता है लोगों के लाभ के लिए पर्याप्त रोजगार , ढांचागत और संस्थागत सुविधाओं को उत्पन्न करने के प्रयास किए जा रहे हैं। शहरीकरण के इस युग में, औद्योगिकीकरण और आधुनिकीकरण , वर्तमान पर्यावरण को संरक्षित और संरक्षित करने के लिए नहीं भूलना चाहिए । रांची शहर के लिए एक सतत और पर्यावरण -अनुकूल विकास का तरीका आवश्यक है।

रांची में व्यापार, वाणिज्य और व्यापार

झारखंड की राजधानी होने के नाते रांची राज्य में व्यापार और वाणिज्य का एक महत्वपूर्ण केंद्र है। उच्च साक्षरता मुख्य व्यापारिक स्थिति दर , मेहनती लोगों, स्थिर राजनीतिक वातावरण और बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध होने से इस क्षेत्र में व्यवसाय के विकास के लिए एक अनुकूल वातावरण बना है। सरकार रांची शहर में निवेश आकर्षित करने के लिए आकर्षक योजनाएं दे रही है। सभी प्रकार के व्यवसाय छोटे-से-दैनिक ज़रूरत की दुकानों , चिकित्सा दुकानों , उच्च अंत ब्रांडेड स्टोरों के लिए तैयार वस्त्रों से रांची में मिल सकते हैं। कई प्रीमियम ब्रांड, फास्ट-फेड चेन और मल्टीप्लेक्स ने रांची में दुकान लगाई है। उपभोक्ता के बढ़ते खर्च की शक्ति के साथ कई मॉल और मल्टीप्लेक्स भी रांची में अच्छा कारोबार कर रहे हैं। रांची में कई बहुराष्ट्रीय कंपनियों , सार्वजनिक क्षेत्र उद्यम और निजी लिमिटेड कंपनियां हैं , जो अच्छे रोजगार के अवसर प्रदान करती हैं। रांची शहर इस प्रकार नए उद्यमियों के लिए पर्याप्त व्यावसायिक अवसर प्रदान करता है कामकाजी पेशेवरों के लिए रोजगार के अवसर .

रांची में खनिज और प्राकृतिक संसाधन

रांची जिला समृद्ध प्राकृतिक और खनिज संसाधन है। रांची शहर एक बड़े और हरे जंगल क्षेत्र से घिरा हुआ है, जो निर्माण, फर्नीचर, मैच बॉक्स, पेपर, रेयान, रेलवे चप्पल, लकड़ी के ध्रुव आदि जैसे बड़ी संख्या में उद्योगों को कई बुनियादी कच्चे माल प्रदान करता है। वन उत्पादन हो सकता है दो श्रेणियों में वर्गीकृत: प्रमुख उत्पाद जिसमें लकड़ी से लकड़ी, जैसे बांस, महुआ, शिशम, कुसुम, आम, जामुन, साल, इम्ली, गामर आदि शामिल हैं। छोटे उत्पाद हैं हर, बेहर, केंडू पत्ता, साल बीज, करंज बीज, महुआ पट्टा, आदि, इन उत्पादों में औषधीय और वाणिज्यिक मूल्य है। रांची के ग्रामीण इलाके की उपजाऊ भूमि में लाल और पीले मिट्टी के साथ-साथ कुछ मात्रा में रेत शामिल है। सिंचाई उद्देश्य के लिए पानी स्वर्णरेखा, कोयल और दामोदर जैसे नदियों से खींचा जाता है।

रांची में उद्योग

झारखंड राज्य में रांची एक महत्वपूर्ण औद्योगिक केंद्र बन गया है। वन और खनिज संसाधनों के अच्छे भंडार की उपस्थिति के कारण मध्यम और बड़े पैमाने पर उद्योग स्थापित करने के लिए एक अच्छी जगह माना जाता है। रांची में मौजूद बड़ी संख्या में इंजीनियरिंग और खनन उद्योग, रांची की आबादी के एक बड़े हिस्से को रोजगार के अवसर प्रदान करते हैं। मौजूदा ग्रामीण उद्योग जैसे सिरीकल्चर, हैंडलूम, हस्तशिल्प, खादी, वस्त्र इत्यादि को ग्रामीण और आजीविका देने के लिए भी बढ़ावा दिया और विकसित किया जा रहा है। जनजातीय आबादी जिला प्रशासन उद्योगों को आधुनिकीकरण / तकनीकी उन्नयन के मामले में मदद करता है, जो आवश्यक सामान्य सुविधाएं, उत्पाद डिजाइन, विपणन सहायता इत्यादि प्रदान करता है ताकि उन्हें विश्व स्तर पर प्रतिस्पर्धी बनाया जा सके। रांची से कुछ प्रमुख निर्यात योग्य वस्तुओं भारी मशीनरी और उपकरण, लाख, खनिज, मिट्टी के बरतन, आईटी और परामर्श सेवाएं हैं।

विश्व व्यापार में सुधार का भारत उठाएगा लाभ!

इस साल के करीब आधे सफर के दौरान कई कारकों से अंतरराष्ट्रीय व्यापार प्रभावित हुआ है। इनमें वैश्विक महामारी से लेकर यूरोप में छिड़ा युद्ध, व्यापक आर्थिक प्रतिबंध, बाधित आपूर्ति श्रंखलाएं और कुछ देशों द्वारा आवश्यक जिंसों के निर्यात की सीमा तय करने से लेकर निर्यात पर प्रतिबंध लगाने जैसे कारक शामिल हैं। ऐसी स्थिति के उलट बात करें तो संभवतः यही वह समय है जब सतत वैश्विक समृद्धि के लिए नियम-आधारित वैश्विक व्यापार की महत्ता पर नए सिरे से विचार किया जाए।

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद वैश्विक व्यापार में चमत्कारिक रूप से वृद्धि हुई। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूटीओ) का अनुमान है कि वर्ष 1950 से 2000 के बीच वैश्विक वस्तुओं के व्यापार आकार में जहां 40 गुना (4,000 प्रतिशत) तो मूल्य के पैमाने पर 300 गुने की तेजी आई। निस्संदेह यही वह दौर था जब वैश्विक जीडीपी में बहुत तेज वृद्धि हो रही थी। यह संभवतः दर्ज इतिहास का सबसे लंबा वैश्विक विस्तार था। फिर भी, विश्व बैंक के आंकड़े यही दर्शाते हैं कि विश्व जीडीपी में विश्व व्यापार (सेवाओं सहित) 1960 में 24 प्रतिशत बढ़ना शुरू हुआ और 2010 के बाद स्थिर होने से पहले उसमें 57 प्रतिशत तक की उछाल आई। वास्तव में, तमाम अर्थशास्त्री वैश्विक जीडीपी में अप्रत्याशित उछाल का श्रेय विश्व व्यापार में निरंतर हुई वृद्धि को देते हैं। व्यापार ने प्रतिस्पर्धी क्षमता, उत्पादकता और तकनीकी प्रगति में योगदान दिया। इसके अतिरिक्त सामान्य तकनीकी प्रगति, उत्तरोत्तर बढ़ती राष्ट्रीय बचत एवं निवेश के साथ ही अच्छी शिक्षा के प्रसार ने भी इसमें महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।

विश्व वाणिज्य में इस आश्चर्यजनक विस्तार के पीछे एक बड़ा कारण 1947 से 1994 के बीच जनरल एग्रीमेंट ऑन टैरिफ ऐंड ट्रेड (गैट) के अंतर्गत चली आठ दौर की उन बहुस्तरीय वार्ताओं का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा, जिनमें टैरिफ (शुल्क) उदारवाद को लेकर चर्चा जारी रही। गैट डब्ल्यूटीओ का पूर्ववर्ती संस्करण ही था। इन वार्ताओं में मुख्य रूप से औद्योगिक देशों का दबदबा रहता था और विकासशील देश अधिकांशतः ‘फ्री राइडर्स’ वाली स्थिति में थे, जिन्हें बस उससे कुछ लाभ हो रहा था। बड़ी दिलचस्प बात है कि डब्ल्यूटीओ के गठन के बाद से एक भी सफल बहुस्तरीय व्यापार उदारवाद का दौर नहीं दिखा। अब ‘ऐक्शन’ मुख्य रूप से उन बहुतायत वाले तरजीही एवं मुक्त व्यापार समझौतों (पीटीए और एफटीए) तक सिमट गया है, जिसमें सीमित सदस्य देशों की भागीदारी होती है।

वैश्विक समृद्धि का यह लंबा दौर, जिसमें भले ही सभी देश बराबर लाभान्वित न हुए हों, कुछ स्थानीय युद्धों (यदि 10 वर्षीय वियतनाम युद्ध, जिसमें तीस लाख से अधिक लोग मारे गए हों, उसे अमेरिकी अध्यादेश एक स्थानीय मसला करार देते हों तो) के बावजूद लंबे समय तक कायम रहा। इसका उल्लेख सिर्फ यह संकेत करने के लिए है कि यूक्रेन में जारी मौजूदा संघर्ष शायद वैश्विक व्यापार एवं उत्पादन पर उतना आघात न कर रहा हो, जैसी आशंका या डर जताया गया। वैश्विक समृद्धि के इस दौर से भारत भी लाभान्वित रहा, जहां उसने 1990 के बाद अपनी अत्यंत जटिल एवं प्रतिबंधात्मक व्यापार व्यवस्था को उदार बनाने के साथ विनिमय दरों को बाजार-अनुकूल बनाया। भारत का व्यापार-जीडीपी अनुपात जो 1950 से 1990 के बीच बमुश्किल 8 से 15 प्रतिशत के दायरे में झूलता रहा, वह 2000 तक ऊंची वृद्धि के साथ 27 फीसदी तक बढ़ गया और 2011 में 50 प्रतिशत से ऊपर चढ़कर चरम पर पहुंच गया, जहां जीडीपी में कुल (वस्तुओं और सेवाओं) निर्यात की हिस्सेदारी करीब 25 प्रतिशत हो गई, जिसमें सॉफ्टवेयर निर्यात में तेजी ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।

वर्ष 2011 से जीडीपी में भारत के व्यापार की हिस्सेदारी घटती गई और 2019 में यह 39 प्रतिशत के स्तर पर रह गया। भारत के वस्तु निर्यात में आया ठहराव इसकी मुख्य वजह रहा। डॉलर मूल्य के हिसाब से इसमें 2018 की तुलना में केवल 8 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज हुई, जबकि इसी अवधि में बांग्लादेश में इसी पैमाने पर 61 प्रतिशत, म्यांमार में 82 प्रतिशत, फिलिपींस में 40 प्रतिशत, चीन में 31 प्रतिशत और वियतनाम में विस्मयकारी 153 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई। पूर्व में प्रकाशित अपने एक आलेख में मैंने भारत के इस लचर प्रदर्शन के संदर्भ में कई पहलुओं पर प्रकाश डाला है। सर्वप्रथम, सामान्य कारकों की बात करें तो (जैसे कि वास्तविक प्रभावी विनिमय दर) इस अवधि के अधिकांश दौर में रुपये की विनिमय दर अधिक मूल्यांकित की गई। दूसरा, जैसा कि अमिता बत्रा की हालिया पुस्तक ‘इंडियाज ट्रेड पॉलिसी इन 21सेंचुरी’ में उचित रूप से दर्शाया गया है कि वर्ष 2000 के बाद वैश्विक आपूर्ति श्रंखला आधारित व्यापार में हुई तेज वृद्धि के बावजूद भारत उसमें प्रभावी रूप से सक्रियता के मामले में विफल रहा, जिसकी ऐसे प्रदर्शन में अहम भूमिका रही। तीसरा, वर्ष 2015 के बाद भारत द्वारा शुल्क और अन्य संरक्षणकारी उपायों ने भी देश के वस्तु निर्यात में तेजी को निस्तेज करने का काम किया और ऐसा आंतरिक एवं बाहरी वैश्विक मूल्य वैल्यू चेंस (जीवीसीएस) दोनों स्तरों पर दिखा।

निःसंदेह 2010 के बाद से विश्व व्यापार की गतिशीलता में ठहराव आता गया। इसके पीछे कई कारण रहे। इनमें वैश्विक वित्तीय मंदी के अलावा ब्रेक्जिट, अमेरिका में ट्रंप प्रशासन के दौरान अपनाई गई संरक्षणवादी नीतियां, भयावह वैश्विक महामारी और यूक्रेन युद्ध के साथ ही जुड़े तमाम आर्थिक प्रतिबंधों जैसे वि-वैश्वीकरण (डीग्लोलबाइजिंग) मुख्य व्यापारिक स्थिति कारकों की भूमिका रही। फिर भी उल्लेखनीय है कि कोविड के कोप के दौरान भी विश्व व्यापार कमोबेश लचीला ही रहा, जिसमें 2020 के दौरान कुछ मामूली गिरावट आई, लेकिन अगले ही वर्ष 2021 में उसने जबरदस्त वापसी की। मध्यम अवधि में यह काफी हद तक संभव है कि पिछले दशकों के कुछ झटकों का असर समय के साथ कम होता जाएगा। किसी भी सूरत में देखें तो चाहे सिद्धांत की बात करें या अतीत के अनुभव की तो उससे यही सिद्ध होता है कि किसी भी देश की एक खुली एवं निर्बाध व्यापार नीति ही उसकी सबसे शानदार व्यापार नीति होती है।

भारत के मामले में भी यही रुझान दिखता है। वित्त वर्ष 2020-21 के दौरान जहां देश के आयात-निर्यात में भारी गिरावट आई तो अगले ही वर्ष उनमें रिकॉर्ड तेजी का रुख रहा, जिसमें जिंसों के मूल्य में कायम तेजी की भी कुछ भूमिका रही। इन कीमतों में तेजी वित्त वर्ष 2022-23 के शुरुआती दो महीनों में भी देखने को मिली। इस कारण व्यापार घाटा रिकॉर्ड ऊंचाई पर है, जिसने समग्र भुगतान संतुलन पर खासा दबाव बढ़ा दिया है। भविष्य की बात करें तो भारत की व्यापार नीति की व्यापक प्राथमिकताएं वही रहें, जिनकी मैं बात करता आया हूं।

एक तो यही कि 2017 से जारी (कुछ मानते हैं कि यह पहले ही शुरू हो गई) शुल्क बढ़ोतरी से चरणबद्ध रूप से निकलें। इसमें ब्रिटिश-अमेरिकी अर्थशास्त्री अब्बा लर्नर की बात याद मुख्य व्यापारिक स्थिति रखी जाए कि ‘आयात पर शुल्क वस्तुतः निर्यात पर शुल्क के समान है।’ जहां तक बाहरी भुगतान समस्या से निपटने की बात है तो उसमें विनिमय दर अवमूल्यन ही मुख्य उपकरण होना चाहिए। इसके लिए शुल्क या आयात पर कोटा प्रतिबंध का सहारा न लिया जाए। वहीं मुद्रास्फीति पर नियंत्रण की राह में भी मौद्रिक एवं राजकोषीय उपायों को निर्यात प्रतिबंधों एवं ड्यूटीज पर वरीयता दी जाए, क्योंकि इनसे तो अक्सर भुगतान संतुलन की समस्याओं से छुटकारे की राह निकलती है। सरकार द्वारा ऑस्ट्रेलिया और संयुक्त अरब अमीरात के साथ मुक्त व्यापार समझौते की पहल स्वागतयोग्य है। वहीं खाड़ी सहयोग परिषद के देशों, इजरायल, ब्रिटेन और यूरोपीय संघ के अलावा नवगठित हिंद प्रशांत आर्थिक ढांचे के माध्यम से व्यापार को बढ़ावा देने की बातें चल रही हैं। हालांकि वैश्विक एवं क्षेत्रीय वैल्यू चेंस में भारत की मौजूदा कम सक्रियता को बढ़ाने में इनमें से कुछ (ईयू के साथ गंभीर किस्म के एफटीए को अपवाद छोड़ दें, जिसके फलीभूत होने के आसार कम हैं) को छोड़ दिया जाए तो कोई भी उस प्रकार की ताकत प्रदान नहीं करता, जैसा हमारे पड़ोस में क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक साझेदारी (आरसेप) जैसा मंच प्रदान करता है।

यकीनन विश्व व्यापार 2022 में कई चुनौतियों से पार पाकर विस्तार की राह पर उन्मुख होगा। ऐसे में बड़ा सवाल यही है कि इस रिकवरी से अधिकाधिक लाभ उठाने के लिए जिन नीतियों की आवश्यकता है, क्या भारत उन्हें अपनाएगा?

(लेखक इक्रियर में मानद प्राध्यापक हैं और भारत सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार रह चुके हैं। लेख में व्यक्त विचार निजी हैं)

मुख्य व्यापारिक स्थिति

मेवाड़ में व्यापार के प्रमुख केन्द्र

गाँवों में व्यापार का काम साप्ताहिक (साती ) अथवा मासिक (मासी ) हटवाड़ (बाजार ) लगा कर किया जाता था। ऐसे हटवाड़ प्रत्येक १०- १२ गाँवों के मध्य लगाये जाते थे। राज्य के आंतरिक व्यापार के प्रमुख केन्द्र उदयपुर, भीलवाड़ा, राशमी, समवाड़, कपासन, जहाजपुर तथा छोटी सादड़ी थे। अंतर्राज्यीय व्यापार के लिए मेवाड़ के वणिक- गण समुह बना कर क्रय- विक्रय हेतु दुरस्थ प्रदेशों में जाते थे। ये व्यापारिक यात्राएँ सर्दी के बाद प्रारंभ हो जाती थी तथा वर्षाकाल से पूर्व समाप्त हो जाती थी।

व्यापारिक यातायात- व्यवस्था

आलोच्यकाल में व्यापारिक यातायात का मुख्य साधन कच्चे व पथरीले मार्ग रहे थे। इन्हीं मार्गों से बनजारे बैलों व भैंसों द्वारा, गाडुलिया लुहार बैलगाड़ियों से, रेबारी लोग ऊँटों द्वारा, कुम्हार तथा ओड़ लोग खच्चर व गधों पर माल लाने- ले जाने का काम करते थे। वैसे स्थान जहाँ पशुओं द्वारा ढ़�लाई संभव नहीं थी, माल आदमी की पीठ पर लाद कर लाया जाता था। लंबी दूरी पर माल- ढ़�लाई का कार्य चारण, बनजारा तथा गाड़ूलिया लुहार, जैसे लड़ाकू - बहादुर जाति के लोग संपन्न करते थे। चारण जाति को समाज में ब्राह्मण - तुल्य स्थान प्राप्त था, अतः इनके काफिलों का लूटना पाप माना जाता था। व्यापारिक काफिले, जो बैलों के झुण्ड पर माल लाद कर चलते थे, बालद (टांडा ) कहलाते थे। एक बालद में एक से एक हजार तक बैल हो सकते थे। ऊँटों का काफिला एक दिन में करीब २२ मील की दूरी तय करता था, वहीं घोड़े से ५० मील तक की यात्रा की जा सकती थी। बैलगाड़ी, गधे, ,खच्चर आदि एक दिन में २५- ३० मील की दूरी तय कर लेते थे।

यात्रा के दौरान रात्रि को मार्ग पर स्थित गाँवों, धर्मशालाओं, धार्मिक स्थलों या छायादार वृक्षों के आस- पास विश्राम किया जाता था, जहाँ पानी के लिए कुँए बावड़ियों की व्यवस्था होती थी। मार्ग स्थित सभी बावड़ियों के किनारे पशु के पेय हेतु प्याउएँ बनी होती थी।

१८ वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में यात्रियों व व्यापारियों को सुरक्षार्थ संबद्ध जागीरदारों का रखवाली एवं बोलाई नामक राहदरी (मार्ग- शुल्क ) देना पड़ता था। वैसे तो ब्रिटिश संरक्षण काल में इन शुल्कों को समाप्त कर दिया गया, फिर भी जागीरदारों इन अधिकारों का अनधिकृत प्रयोग करते थे। मराठा अतिक्रमण काल में मार्ग का सुरक्षित यात्रा बीमा तथा प्रति बैल के हिसाब से व्यापारिक माल बीमा देना पड़ता था। वर्षा के दिनों में मार्ग अवरुद्ध हो जाने की स्थिति में कीर नामक जाति के लोग "उतराई' शुल्क लेकर लोगों को सुरक्षित नदी पार कराती थी।

अभिजात्य तथा संपन्न वर्ग के लोग पालकियों व बग्गियों पर यात्रा करते थे।

चुंगी व्यवस्था

व्यापारिक माल की आमद (आयात ) और निकास (निर्यात ) पर व्यापारियों को दाण, बिस्वा एवं मापा नामक शुल्क राज्य को देना पड़ता था। एक गाँव से दूसरे गाँव माल ले जाने के लिए ग्राम- पंचायतों को ""माना' चुकाना पड़ता था। दाण व बिस्वा के अधिकार प्रायः राणा के पास होता था, लेकिन १८ वीं सदी में विशिष्ट सैन्य- योग्यता प्रदर्शित करने वाले क्षत्रियों को भी दाण लेने के अधिकार प्रदान किये गये थे। इन अधिकारों का सन् १८१८ ई. के बाद केंद्रीकरण करने की व्यवस्था की गई, जो राणा स्वरुप सिंह तक चली भी। फिर से ठेके की सायर (चुंगी ) व्यवस्था तोड़कर स्थान- स्थान पर राज्य के दाणी- चोंतरे बनाये गये।

रेल की सुविधा आ जाने के बाद प्रत्येक स्टेशनों पर दाणी - घर बनाये गये। दाणी व हरकारे नियुक्त किये गये। यहाँ से माल उतारने व माल चढ़ाने की चुंगी ली जाती थी। पहले चुगी नगों की गिनती, अनाज की तोल व पशु गणना के आधार पर ली जाती थी। बाद में २० वीं सदी के पूर्वार्द्ध में शुल्क लिया जाने लगा। आयात शुल्क निर्यात शुल्क से अधिक लिया जाता था। पूण्यार्थ धर्मार्थ वस्तुओं, लड़की के विवाह व मृत्युभोज की वस्तुओं पर चुंगी नहीं ली जाती थी।

अवलोकन

व्यापार अवलोकन

व्यापार मंडल के निर्यात और कृषि वस्तुओं के आयात पर नीति सिफारिशें करने की जिम्मेदारी सौंपी है। व्यापार मंडल विश्व व्यापार संगठन के (डब्ल्यूटीओ) कृषि पर कृषि के क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश पर वाणिज्य मंत्रालय, विदेशी निवेश संवर्धन बोर्ड के साथ (एफआईपीबी), वित्त मंत्रालय के साथ साथ मामलों में समझौते से संबंधित पर प्रतिक्रियाएं तैयार करने / समन्वय के लिए नोडल विभाग के डिवीजन है कृषि जिंसों पर और तरजीही व्यापार समझौते (पीटीए) / मुक्त व्यापार समझौते (एफटीए) के लिए विभिन्न देशों के साथ से संबंधित मामलों में वाणिज्य मंत्रालय के साथ कस्टम / उत्पाद शुल्क में संशोधन करने के लिए।

निम्नलिखित कार्य व्यापार मंडल के लिए आवंटित किया गया है: -

  • कृषि और अन्य संबद्ध समझौतों पर विश्व व्यापार संगठन समझौते में भारत की स्थिति के निर्माण में वाणिज्य विभाग मुख्य व्यापारिक स्थिति के साथ कार्य करना।
  • विभिन्न रिटर्न / रिपोर्ट तैयार करने के लिए विश्व व्यापार संगठन के अधिसूचित होने के लिए।
  • सभी मामले कृषि जिंसों के संबंध में नीति सिफारिशों सहित अंतरराष्ट्रीय व्यापार से संबंधित।
  • विभिन्न तरजीही व्यापार व्यवस्था (पीटीए) में कृषि जिंसों के संबंध में वार्ता के संबंध में वाणिज्य विभाग से प्राप्त प्रस्तावों की परीक्षा / मुक्त व्यापार क्षेत्र (एफटीए) और भारत के प्रस्ताव और अनुरोध सूची तैयार करने।
  • डीआईपीपी के साथ कृषि में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश परामर्श से संबंधित नीति तैयार।.
  • एफडीआई प्रस्तावों की परीक्षा विदेशी निवेश संवर्धन बोर्ड (एफआईपीबी) से प्राप्त किया।
  • निर्यात और कृषि जिंसों के आयात से संबंधित आंकड़ों का संकलन / विश्लेषण।
  • सीमा शुल्क में संशोधन के संबंध मुख्य व्यापारिक स्थिति में सुझाव भी शामिल है बजट प्रस्तावों

वैश्विक कृषि व्यापार में भारत की स्थिति

भारत दुनिया में कृषि उत्पादों के 15 प्रमुख निर्यातकों में से एक है। देश में चावल, मांस, मसाले, कच्चा कपास और चीनी जैसे कुछ कृषि वस्तुओं में मुख्य व्यापारिक स्थिति एक महत्वपूर्ण निर्यातक के रूप में उभरा है। भारत बासमती चावल, ग्वार गम और अरंडी के तेल की तरह कुछ विशिष्ट कृषि उत्पादों में निर्यात प्रतिस्पर्धा विकसित की है। विश्व व्यापार संगठन के व्यापार आंकड़ों के अनुसार, कृषि मुख्य व्यापारिक स्थिति निर्यात और दुनिया में आयात में भारत की हिस्सेदारी 2.46% और 2014 में 1.46% क्रमशः थे इस वर्ष के दौरान भारत के कुल वैश्विक कृषि तथा संबद्ध निर्यात और आयात अमेरिका में थे 43.47 $ मुख्य व्यापारिक स्थिति अरब डॉलर और अमेरिका 27.31 अरब $ क्रमशः।

कृषि व्यापार नीति

निर्यात - वर्तमान में चावल, गेहूं, चीनी, कपास, फल और सब्जियों सहित प्राचार्य कृषि उत्पादों के निर्यात के लिए किसी भी मात्रात्मक प्रतिबंध के बिना "मुक्त" कर रहे हैं। मुख्य व्यापारिक स्थिति थोक (नारियल तेल और चावल की भूसी का तेल को छोड़कर) में दालों (काबुली चना को छोड़कर) के निर्यात और खाद्य वनस्पति तेल घरेलू मांग को पूरा करने के लिए 'प्रतिबंधित' है।

प्राचार्य कृषि उत्पादों के आयात Imports- ज्यादातर कोई मात्रात्मक प्रतिबंध के बिना "मुक्त" कर रहे हैं।

भारत के कृषि निर्यात

कृषि निर्यात रुपये से कम किया है। रुपये के लिए वर्ष 2013-14 में 2,62,778 करोड़ रुपए है। लगभग 18% की गिरावट के साथ वित्त वर्ष 2015-16 में 2,13,555 करोड़ रुपए है। 2015-16 समुद्री उत्पादों, बासमती और गैर बासमती चावल, भैंस के मांस, मसाले और कपास के दौरान भारत के कृषि निर्यात के शीर्ष वस्तुओं थे। देश के कुल निर्यात में कृषि निर्यात की हिस्सेदारी 2015-16 में 12.46% करने के लिए वर्ष 2013-14 में 13.79% से कम किया है।

भारत की कृषि आयात

भारत की कृषि आयात रुपये से वृद्धि हुई है। 2015-16 में 1,39,933 करोड़ रुपये पर वित्त वर्ष 2013-14 में 85,727 करोड़ रुपए की इस अवधि के दौरान कृषि आयात के मूल्य में लगभग 63% बढ़ाएँ की वृद्धि दर्ज की मुख्य रूप से वनस्पति तेल, दाल, काजू, मसाले और के आयात के कारण था चीनी। कुल आयात में कृषि आयात का हिस्सा 2015-16 में 5.63% करने के लिए वर्ष 2013-14 में 3.16% से वृद्धि हुई है।

कृषि क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश नीति

वर्तमान एफडीआई नीति के अनुसार, 100% एफडीआई स्वत: मार्ग के माध्यम से कृषि की निम्नलिखित गतिविधियों में अनुमति दी है।

  1. फूलों की खेती, बागवानी, मधुमक्खी पालन और नियंत्रित परिस्थितियों में सब्जियों और मशरूम की खेती।
  2. विकास और बीज के उत्पादन और रोपण सामग्री।
  3. पशुपालन (कुत्तों के प्रजनन सहित), मछली पालन, मत्स्य पालन, नियंत्रित परिस्थितियों में।
  4. कृषि और संबद्ध क्षेत्रों से संबंधित सेवाएं।

100% एफडीआई भी बागान क्षेत्र अर्थात् चाय बागानों, कॉफी बागान, रबड़ वृक्षारोपण, इलायची वृक्षारोपण, ताड़ के तेल वृक्षारोपण और स्वत: मार्ग के माध्यम से जैतून का तेल पेड़ वृक्षारोपण में अनुमति दी है।

उपरोक्त के अलावा, एफडीआई किसी भी अन्य कृषि क्षेत्र / गतिविधि में अनुमति नहीं है।

अमेरिका बना भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक भागीदार, 2021-22 में द्विपक्षीय व्यापार 119.42 अरब डॉलर पर

नयी दिल्ली, 29 मई (भाषा) अमेरिका बीते वित्त वर्ष (2021-22) में भारत का दूसरा सबसे बड़ा व्यापारिक भागीदार बन गया है। इससे दोनों देशों के बीच मजबूत होते आर्थिक रिश्तों का पता चलता है। इस तरह भारत के साथ व्यापार के मुख्य व्यापारिक स्थिति मामले में अमेरिका ने चीन को पीछ़े छोड़ दिया है। वाणिज्य मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, 2021-22 में अमेरिका और भारत का द्विपक्षीय व्यापार बढ़कर 119.42 अरब डॉलर पर पहुंच गया। 2020-21 में यह आंकड़ा 80.51 अरब डॉलर का था। आंकड़ों के अनुसार, 2021-22 में भारत का अमेरिका को निर्यात बढ़कर 76.11 अरब डॉलर पर पहुंच गया, जो

वाणिज्य मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, 2021-22 में अमेरिका और भारत का द्विपक्षीय व्यापार बढ़कर 119.42 अरब डॉलर पर पहुंच गया। 2020-21 में यह आंकड़ा 80.51 अरब डॉलर का था।

आंकड़ों के अनुसार, 2021-22 में भारत का अमेरिका को निर्यात बढ़कर 76.11 अरब डॉलर पर पहुंच गया, जो इससे पिछले वित्त वर्ष में 51.62 अरब डॉलर रहा था। वहीं इस दौरान अमेरिका से भारत का आयात बढ़कर 43.31 अरब डॉलर पर पहुंच गया, जो इससे पिछले वित्त वर्ष में 29 अरब डॉलर था।

आंकड़ों के अनुसार, 2021-22 में भारत-चीन द्विपक्षीय व्यापार 115.42 अरब डॉलर रहा, जो 2020-21 में 86.4 अरब डॉलर था।

वित्त वर्ष के दौरान चीन को भारत का निर्यात मामूली बढ़कर 21.25 अरब डॉलर पर पहुंच गया, जो 2020-21 में 21.18 अरब डॉलर रहा था।

वहीं इस दौरान चीन से भारत का आयात बढ़कर 94.16 अरब डॉलर पर पहुंच गया, जो 2020-21 में 65.21 अरब डॉलर पर था। वित्त वर्ष के दौरान भारत का चीन के साथ व्यापार घाटा बढ़कर 72.91 अरब डॉलर पर पहुंच गया, जो 2020-21 में 44 अरब डॉलर रहा था।

व्यापार क्षेत्र के विशेषज्ञों का मानना है कि आगामी वर्षों में भारत का अमेरिका के साथ द्विपक्षीय व्यापार और बढ़ेगा, जिससे दोनों देशों के आर्थिक रिश्तों को और मजबूती मिलेगी।

भारतीय निर्यात संगठनों के महासंघ (फियो) के उपाध्यक्ष खालिद खान ने कहा कि भारत एक भरोसेमंद व्यापार भागीदार के रूप में उभर रहा है और वैश्विक कंपनियां चीन पर अपनी निर्भरता कम कर रही हैं। वैश्विक कंपनियां अपने कारोबार का भारत और अन्य देशों में विविधीकरण कर रही हैं।

खान ने कहा, ‘‘आगामी बरसों में भारत-अमेरिका द्विपक्षीय व्यापार और बढ़ेगा। भारत, अमेरिका की हिंद-प्रशांत आर्थिक रूपरेखा (आईपीईएफ) पहल में शामिल हुआ है। इससे आर्थिक रिश्तों को और मजबूती मिलेगी।’’

भारतीय बागान प्रबंधन संस्थान (आईआईपीएम), बेंगलूर के निदेशक राकेश मोहन जोशी ने कहा कि 1.39 अरब की आबादी के साथ भारत दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा उपभोक्ता बाजार है। तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था के चलते अमेरिका और भारत की कंपनियों के पास प्रौद्योगिकी हस्तांतरण, विनिर्माण, व्यापार और निवेश के काफी अवसर हैं।

जोशी ने बताया कि भारत द्वारा अमेरिका को मुख्य रूप से पेट्रोलियम उत्पादों, पालिश हीरों, फार्मा उत्पाद, आभूषण, हल्के तेल आदि का निर्यात किया जाता है। वहीं अमेरिका से भारत पेट्रोलियम पदार्थ, तरल प्राकृतिक गैस, सोने, कोयले और बादाम का आयात करता है।

अमेरिका उन कुछ देशों में है जिनके साथ भारत व्यापार अधिशेष की स्थिति में है।

अमेरिका के साथ भारत का व्यापार अधिशेष 32.8 अरब डॉलर का है। 2013-14 से 2107-18 तक और उसके बाद 2020-21 में चीन भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक भागीदार था। चीन से पहले संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक भागीदार था।

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