संकेतकों को फिर से निकालने का खतरा क्या है?

समावेशी हों एंटी-क्लाइमेट चेंज नीतियाँ
भविष्य में जलवायु परिवर्तन का गरीबी पर क्या प्रभाव होगा? क्या जलवायु परिवर्तन या गरीबी, दोनों में से किसी एक का तोड़ निकालने से दोनों समस्याओं का समाधान हो जाएगा? भारत समेत विश्व के लगभग सभी विकासशील देशों के नीति निर्माताओं के लिये इन सवालों का उत्तर देना टेढ़ी खीर बन गया है। अनेकों अध्ययनों द्वारा यह प्रमाणित किया गया है कि बढ़ती गरीबी और जलवायु परिवर्तन के ख़तरे आज एक दूसरे के पर्यायवाची बन चुके हैं। ऐसे में हमें ऐसी नीतियों की ज़रूरत है जो एंटी-क्लाइमेट चेंज होने के साथ-साथ सतत विकास के मूल्यों को समाहित करने वाले हों। गरीबी और जलवायु परिवर्तन में सबंध और समस्याओं के समाधान की बात करने से पहले हमारे लिये यह जानना आवश्यक है कि भारत में गरीबों की वास्तविक संख्या है क्या ?
क्या हो गरीबी की वास्तविक परिभाषा?
- दरअसल, पिछले तीन दशकों में गरीबी की परिभाषा में व्यापक एवं स्वागतयोग्य बदलाव आया है, अब केवल किसी व्यक्ति की आय ही गरीबी रेखा के निर्धारण का मूल घटक नहीं है।
- यदि किसी के पास पर्याप्त धन है फिर भी शिक्षा,पोषण, स्वास्थ्य एवं अन्य आवश्यक मानकों पर वह कमज़ोर पड़ सकता है। फिर भी, भारत और कई अन्य देशों में, गरीबी का अनुमान लगाने के लिये सरकारें आय या उपभोग विधि का उपयोग कर रही हैं।
- विदित हो कि आय व उपभोग विधि का इस्तेमाल कर पूर्ववर्ती योजना आयोग ने यह बताया है कि भारत की 22 प्रतिशत जनसंख्या गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन कर रही है। हालाँकि इस विधि की अपनी सीमाएँ हैं और गरीबी की गणना और उससे लड़ने के लिये नए तरीके इस्तेमाल करने की ज़रूरत है।
- मानव विकास को सिर्फ आमदनी और खर्च के हिसाब से मापने की बजाय जीवन प्रत्याशा और शिक्षा की गुणवत्ता जैसी चीज़ो से भी मापना होगा और इसके लिये बहुआयामी गरीबी सूचकांक(एमपीआई) की मदद ली जा सकती है।
- विदित हो वर्ष 2010 में एचडीआर ने इसकी शुरुआत की थी, जो कि शिक्षा, स्वास्थ्य और जीवन स्तर के अभाव को दिखाता है। इसमें इन तीनों आधारों को एक समान महत्त्व दिया गया है। प्रत्येक आधार में कई संकेतक शामिल हैं, जिनका अध्ययन किया जाता है और एक-तिहाई संकेतकों के स्तर पर वंचित को गरीब मान लिया जाता है।
- एमपीआई गरीबी की गणना का अत्यंत ही उपयोगी तरीका है, एमपीआई के नवीनतम आँकड़ों के अनुसार, भारत की 41 प्रतिशत जनता गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करती है।
जलवायु परिवर्तन से कैसे बढ़ती है गरीबी?
- जलवायु परिवर्तन से फसल की पैदावार में गिरावट हो सकती है (सबसे खराब स्थिति 2030 तक वैश्विक फसल की उपज में 5 फीसदी गिरावट हो सकती है ) जिस कारण भोजन महँगा हो सकता है। विदित हो कि खाद्य वस्तुओं के मूल्य में हुई वृद्धि के कारण विश्व भर में वर्ष 2008 में 100 मिलियन एवं 2010-11 में 44 मिलियन लोग गरीबी रेखा के नीचे चले गए थे।
- स्वस्थ और निरोग मानव संसाधन विकास की कुंजी है किन्तु तापमान में 2 से 3 डिग्री सेल्सियस अधिक वृद्धि होने से विश्व भर में मलेरिया का जोखिम 5 फीसदी एवं अन्य संक्रामक रोगों का खतरा 10 फीसदी बढ़ सकता है। खाद्य पदार्थ महँगे होंगे एवं लोग ज़रूरी पोषक तत्व लेने में असमर्थ हो सकते हैं। तापमान में वृद्धि होने से श्रम उत्पादकता में 1 से 3 फीसदी की कमी हो सकती है।
- प्राकृतिक विपत्तियों, जैसे कि बाढ़, सूखा और उच्च तापमान जैसी घटनाओं में तीव्रता के साथ वृद्धि हो सकती है। जलवायु परिवर्तन से दुनिया भर में सूखे की मार झेलने वाले लोगों की संख्या में 9 से 17 फीसदी की वृद्धि एवं बाढ़ की मार झेलने वालों की संख्या में 4 से 15 फीसदी की वृद्धि हो सकती है।
- दरअसल, इन प्राकृतिक विपत्तियों का शिकार अमीर लोगों की तुलना में आर्थिक रुप से कमज़ोर लोग अधिक होते हैं। आमतौर पर उनकी अपनी संपत्ति जैसे कि आवास एवं पशु जिन्हें काफी पैसे एवं समय लगा कर वे बनाते हैं, वे पल भर में प्राकृतिक आपदा की बलि चढ़ जाते हैं।
क्या हो आगे का रास्ता ?
- ध्यातव्य है कि वर्ष 2030 तक जो भी परिवर्तन होंगे वह पिछले उत्सर्जन के कारण होंगे और नई नीतियों का केवल दीर्घकालिक प्रभाव हो सकता है। शायद जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के संबंध में कुछ नहीं किया जा सकता है, लेकिन सरकारें गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन कर रहे लोगों के लिये अवश्य कुछ कर सकती हैं। सरकार सबसे अधिक जोखिम में रहने वाले लोगों को सुरक्षा और सहायता प्रदान कर सकती है।
- सरकार की ओर से प्राकृतिक आपदा की स्थिति में शीघ्र सहायता प्रदान की जानी चाहिये क्योंकि यदि सहायता में विलम्ब हो तो परिवार खुद के जीवन को सुरक्षित रखने के लिये अपनी संपत्ति को बेचने की कोशिश करता है। समाज के सबसे कमज़ोर वर्ग के लोगों तक योजना की पहुँच होनी चाहिये।
- प्राकृतिक आपदाओं से निपटने के लिये सुरक्षित बुनियादी ढाँचे में सुधार जैसे कि बाढ़ से बचने के लिये जल निकासी व्यवस्था एवं पूर्व चेतावनी प्रणाली को दुरुस्त बनाया जाना चाहिये। आपदा प्रभावित लोगों को एक स्थिर नौकरी या आय प्रदान की जा सकती है।
निष्कर्ष
‘ट्रांस्फॉर्मिंग आवर वर्ल्ड: द 2030 एजेंडा फॉर सस्टेनेबल डेवलपमेंट' के संकल्प को, जिसे सतत विकास लक्ष्यों के नाम से भी जाना जाता है को भारत सहित 193 देशों ने सितंबर, 2015 में संयुक्त राष्ट्र महासभा की उच्च स्तरीय पूर्ण बैठक में इसे स्वीकार किया था और 1 जनवरी, 2016 को यह लागू किया गया। इसके तहत 17 लक्ष्य तथा 169 उपलक्ष्य निर्धारित किये गए थे, जिन्हें 2016-2030 की अवधि में प्राप्त करना है। सतत विकास से हमारा अभिप्राय ऐसे विकास से है, जो हमारी भावी पीढ़ियों की अपनी ज़रूरतें पूरी करने की योग्यता को प्रभावित किये बिना वर्तमान समय की आवश्यकताएँ पूरी करे। सतत विकास लक्ष्यों का उद्देश्य सबके लिये समान, न्यायसंगत, सुरक्षित, शांतिपूर्ण, समृद्ध और रहने योग्य विश्व का निर्माण करना और विकास के तीनों पहलुओं, अर्थात सामाजिक समावेश, आर्थिक विकास और पर्यावरण संरक्षण को व्यापक रूप से समाविष्ट करना है। भारत को यदि अपनी आधी से भी अधिक आबादी को गरीबी के जाल में फँसने से रोकना है तो उसे इन 2030 तक इन लक्ष्यों की प्राप्ति कर लेनी होगी, क्योंकि वह सतत विकास ही है जो पहले हो चुकी क्षति की पूर्ति कर सकता है।
भारत में अब भी 37 करोड़ लोग गरीब, संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट
गरीबी का आकलन सिर्फ आय के आधार पर नहीं बल्कि स्वास्थ्य की खराब स्थिति, कामकाज की खराब गुणवत्ता और हिंसा का खतरा जैसे कई संकेतकों के आधार पर किया गया
भारत में गरीबी में कमी के मामले में सर्वाधिक सुधार झारखंड में देखा गया. वहां विभिन्न स्तरों पर गरीबी 2005-06 में 74.9 प्रतिशत से कम होकर 2015-16 में 46.5 प्रतिशत पर आ गयी
इस दौरान खाना पकाने का ईंधन, साफ-सफाई और पोषण जैसे क्षेत्रों में मजबूत सुधार के साथ गरीबी सूचकांक मूल्य में सबसे बड़ी गिरावट आयी है. संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) और आक्सफोर्ड पोवर्टी संकेतकों को फिर से निकालने का खतरा क्या है? एंड ह्यूमन डेवलपमेंट इनीशिएटिव (ओपीएचआई) द्वारा तैयार वैश्विक बहुआयामी गरीबी सूचकांक (एमपीआई) 2019 बृहस्पतिवार को जारी किया गया.
101 देशों के 1.3 अरब लोगों पर अध्ययन
रिपोर्ट में 101 देशों में 1.3 अरब लोगों का अध्ययन किया गया. इसमें 31 न्यूनतम आय, 68 मध्यम आय और दो उच्च आय वाले देश शामिल थे. इन देशों में कई लोग विभिन्न पहलुओं के आधार पर गरीबी में फंसे थे. यानी गरीबी का आकलन सिर्फ आय के आधार पर नहीं बल्कि स्वास्थ्य की खराब स्थिति, कामकाज की खराब गुणवत्ता और हिंसा का खतरा जैसे कई संकेतकों के आधार पर किया गया.
संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट में गरीबी में कमी को देखने के लिये संयुक्त रूप से करीब दो अरब आबादी के साथ 10 देशों को चिन्हित किया गया. आंकड़ों के आधार पर इन सभी ने सतत विकास लक्ष्य 1 प्राप्त करने के लिये उल्लेखनीय प्रगति की. सतत विकास लक्ष्य 1 से आशय गरीबी को सभी रूपों में हर जगह समाप्त करना है. ये 10 देश बांग्लादेश, कम्बोडिया, डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ कांगो, इथियोपिया, हैती, भारत, नाइजीरिया, पाकिस्तान, पेरू और वियतनाम हैं. इन देशों में गरीबी में उल्लेखनी कमी आयी है.
गरीबी दूर करने में दक्षिण एशिया सबसे आगे
रिपोर्ट के मुताबिक, ''सबसे अधिक प्रगति दक्षिण एशिया में देखी गई. भारत में 2006 से 2016 के बीच 27.10 करोड़ लोग, जबकि बांग्लादेश में 2004 से 2014 के बीच 1.90 करोड़ लोग गरीबी से बाहर निकले.'' इसमें कहा गया है कि 10 चुने गये देशों में भारत और कम्बोडिया में एमपीआई मूल्य में सबसे तेजी से कमी आयी. इन देशों ने सबसे गरीब लागों को गरीबी से बाहर निकालने में कोई कसर नहीं छोड़ी.
झारखंड का प्रदर्शन सबसे अच्छा
भारत का एमपीआई मूल्य 2005-06 में 0.283 था जो 2015-16 में 0.123 पर आ गया. रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में गरीबी में कमी के मामले में सर्वाधिक सुधार झारखंड में देखा गया. वहां विभिन्न स्तरों पर गरीबी 2005-06 में 74.9 प्रतिशत से कम होकर 2015-16 में 46.5 प्रतिशत पर आ गयी. इसमें कहा गया है कि दस संकेतकों-पोषण, स्वच्छता, बच्चों की स्कूली शिक्षा, बिजली, स्कूल में उपस्थिति, आवास, खाना पकाने का ईंधन और संपत्ति के मामले में भारत के अलावा इथोपिया और पेरू में उल्लेखनीय सुधार दर्ज किये गये.
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संकेतकों को फिर से निकालने का खतरा क्या है?
निति आयोग के सदस्य वर्ष 2017 में जारी ग्लोबल हंगर इंडेक्स की लिस्ट में भारत का 119 देशों में से 100वें स्थान पर संकेतकों को फिर से निकालने का खतरा क्या है? आने को भ्रामक बता रहे हैं, लगता है निति आयोग के सदस्य देश में भुखमरी की गंभीरता को भूल रहे हैं और या फिर यह उनकी सरकार को खुश करने की कोशिश है.
वैश्विक भूख सूचकांक (जी.एच.आई.) का मुख्य उद्देश्य, जिसे अंतर्राष्ट्रीय खाद्य नीति अनुसंधान संस्थान द्वारा डिजाइन किया गया है वह एक उपकरण है जो वैश्विक, क्षेत्रीय और राष्ट्रीय स्तर पर भूख को मापने और भूख को दूर करने और भूख को कम करने की दीर्घकालिक प्रगति को दिखाता है. वैश्विक स्तर पर जी.एच.आई. 2017 ने चार मुख्या संकेतकों के आधार पर औसत निकाला है, इनमें कुपोषण, कमज़ोर बच्चे, अविकसित बच्चे और बाल मृत्यु दर, इन चार संकेतों में से तीन संकेतो के आधार पर पांच साल से कम उम्र के बच्चों की स्थिति को दर्शाते हैं. इन संकेतों पर सवाल उठाते हुए, नीति आयोग के सदस्यों ने निष्कर्ष निकाला कि भूख सूचकांक बच्चों के पोषणरहित के प्रति "अत्यधिक पक्षपाती" है और दावा किया है कि वैश्विक भूख सूचकांक (जी.एच.आई.) "समग्र आबादी में भूख की स्थिति का सही प्रतिनिधित्व नहीं करता" है.
यह निराशाजनक है कि नीति आयोग के बुद्धिजीवियों ने जी.एच.आई. की गणना में इस्तेमाल विशिष्ट पद्धति को अपनाने के कई फायदे को भी नहीं माना है. सबसे पहले तो जी.एच.आई. में कमज़ोर बच्चे और अविकसित बच्चे के संकेतकों को शामिल करना तीव्र रूप से पुरानी पोषणरहित बच्चों को प्रतिबिंबित करता है. दूसरे, चूंकि कमजोर बच्चे आबादी के सबसेट का निर्माण करते हैं, जिनके लिए आहार ऊर्जा, प्रोटीन, या सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी से बीमारी का खतरा अब्धता है और गरीब तबके का शारीरिक और संज्ञानात्मक विकास रुक जाता हिया जिससे उनकी मृत्यु होने की स्थिति में इजाफा हो जाता है. या पद्धति न केवल बच्चों की पोषण स्थिति को दर्शाती है बल्कि पूरी आबादी की स्थिति को संकेतकों को फिर से निकालने का खतरा क्या है? भी दर्शाती है. और तीसरा, स्वतंत्र रूप से मापक संकेतकों और सूचकांक के लिए एक से अधिक संयोजन से माप में होने वाली त्रुटियों के प्रभाव को कम करता है.
भारत में बाल स्वास्थ्य के संकेतकों के संदर्भ में भारत का स्थान खराब रहा है, खासकर कमज़ोर बच्चे के सम्बन्ध में, 119 देशों में से 117 वां स्थान, जो कि उन देशों से भी नीचे है जो, संकेतकों को फिर से निकालने का खतरा क्या है? अकाल और युद्ध की वजह से पीछे है और बाल मृत्यु दर और बाल स्टंटिंग के मामले में, भारत क्रमशः 106 और 117 में स्थान पर है. राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण 2015-16 के अनुसार, अविकसित, कम वजन और कमज़ोर पांच साल से कम उम्र के बच्चों का प्रतिशत क्रमशः कम है, और वह क्रमश 38.4, 21.0 और वजन 35.7 है.
उन्होंने गणना में इस्तेमाल संकेतकों को फिर से निकालने का खतरा क्या है? की गई बच्चे के लिए न्यूनतम ऊर्जा की आवश्यकता के लिए के तैयार कट-ऑफ को भी "अनिर्णायक बहस" का दावा करते हुए सूचकांक की गणना में इस्तेमाल भुखमरी की घटनाओं सही नहीं माना. हालांकि उन्होंने कहा कि खाद्य और कृषि संगठन (एफएओ) के औसत से भारत के लिए (कट ऑफ) न्यूनतम ऊर्जा के पैमाने की आवश्यकता अलग है. उन्होंने यह भी संकेत दिया कि वैश्विक औसत से संकेतकों को फिर से निकालने का खतरा क्या है? भारतीय औसत से अधिक है, और इसलिए उनके अनुसार भारत के खराब रैंक के लिए यह भी एक कारण है. लेकिन, वे इस तर्क का उल्लेख करना भूल गए कि प्रत्येक देश की अपनी गणना का पैमाना है, जो कि सभी देशों की जी.एच.आई. गणना का आधार है, और वह सब पर लागू होता है. आई.सी.एम.आर. और एन.आई.एन. की सिफारिशों संकेतकों को फिर से निकालने का खतरा क्या है? के मुताबिक भारत में न्यूनतम आवश्यकता के अनुसार 2400 किलोग्राम केलोरी प्रति दिन (ग्रामीण निवासियों के लिए) और 2100 (शहरी निवासियों के लिए) के लिए उपयोग जरूरी है. यह एफ.ए.ओ. की संकेतकों को फिर से निकालने का खतरा क्या है? वैश्विक औसत 1800 किलो केलोरी से अधिक है. इसका कारण यह है कि भारत में, लोग पश्चिमी यूरोप या उत्तरी अमेरिका के लोगों की तुलना में ज्यादा कठिन शारीरिक श्रम करटे हैं. इसलिए कैलोरी की आवश्यकता अधिक है.
कई अन्य इंडेक्स हैं जहां भारत सबसे निचले पायदान पर आता हैं: जैसे शिशु मृत्यु दर सूचकांक (175/223), शिक्षा सूचकांक (145/197), वर्ल्ड ख़ुशी इंडेक्स (122/155) और सबसे व्यापक और विशाल के मामले में भारत, मानव विकास सूचकांक में (131 /188) है. इनके बारे में नीती आइए क्या करेंगा?
सर्वश्रेष्ठ मुद्रा ट्रेडिंग संकेतक
बाजार की भविष्यवाणी के लिए और जोखिमों को ंयूनतम करने के लिए पेशेवर व्यापारी और निवेशक विभिन्न उपकरणों का उपयोग करते हैं । प्रसिद्ध उपकरण व्यापक रूप से बाजार की भविष्यवाणी के लिए विदेशी मुद्रा व्यापारियों द्वारा इस्तेमाल के बीच तकनीकी संकेतक हैं । तकनीकी संकेतकों की मदद से व्यापारी आसानी से तय कर सकते हैं कि उनके लिए वित्तीय साधन खरीदने या बेचने के लिए कब सही समय है । नीचे प्रस्तुत कर रहे है उत्तम मुद्रा व्यापार संकेतक कि व्यापक रूप से पेशेवर विदेशी मुद्रा व्यापारी और तकनीकी विश्लेषकों द्वारा उपयोग किया जाता है .
सर्वश्रेष्ठ मुद्रा व्यापार संकेतक विधेयक विलियंस द्वारा
बिल विलियम्स एक बहुत ही लोकप्रिय और सफल व्यापारी थे, जिन्होंने अपना खुद का विकास किया ट्रेडिंग स्ट्रैटेजी , जो अराजकता के बाजार और अतार्किक तर्क का विश्लेषण करने के लिए तर्कसंगत दृष्टिकोण का प्रयोग करने पर आधारित थी । अपनी रणनीति विकसित करने के कारण निम्नलिखित संकेतक अस्तित्व में आए:
- Acceleration/Deceleration (AC) तकनीकी संकेतक
- Alligator
- Awesome Oscillator (AO)
- Fractals
- Gator Oscillator (GO)
- Market Facilitation Index
सर्वश्रेष्ठ मुद्रा व्यापार संकेतक: oscillators
तकनीकी विश्लेषण में oscillators ने समय के साथ मूल्य परिवर्तन व्यक्त किए. द्वारा उनके फार्म oscillators के लिए बहुत ही उंनत संकेतक है, जो मुख्य रूप से इस्तेमाल कर रहे है जब बाजार में खरीदा है या कर रहे है माना जाता है । बाजार जब कीमतों में तेजी से और दृढ़ता से वृद्धि हुई है और बाजार में जब कीमतें बहुत नीचे जाना है । ये हैं सबसे लोकप्रिय संकेतक:
- The Average True Range (ATR)
- The Bollinger Bands Indicator
- The Commodity Channel Index
- DeMarker Indicator
- The Envelopes Indicator
- The Force Index Indicator
- The Ichimoku Indicator
- Moving-Average Convergence/Divergence (MACD) Oscillator
- Momentum Oscillator
- Relative Vigor Index
- Relative Strength Index
- Stochastic Indicator
- Williams Percent Range (%R) Indicator
यहां यह MACD हिस्टोग्राम के बारे में उल्लेख करने लायक होगा, जो फिर से ऊपर और नीचे गति संकेत करने के लिए एक महत्वपूर्ण उपकरण है । एक बढ़ती हिस्टोग्राम एक घटते हुए हिस्टोग्राम नीचे गति इंगित करता है, जबकि ऊपर की गति संकेत करने के लिए प्रयोग किया जाता है.
सर्वश्रेष्ठ मुद्रा व्यापार संकेतक: Trend
तकनीकी विश्लेषण करने के लिए अगला सबसे महत्वपूर्ण टूल ट्रेंड इंडिकेटर है जिसका उपयोग मूल्य आंदोलनों की दिशा दर्शाने के लिए किया जाता है । प्रवृत्ति संकेतक वास्तव में व्यापारियों के लिए एक बड़ी मदद कर रहे है के रूप में वे उंहें कई झूठी संकेतों से बचने और बाजार में नए प्रवृत्तियों की उपस्थिति का पूर्वानुमान करने में मदद । यहां सबसे लोकप्रिय प्रवृत्ति पुष्टि संकेतक हैं:
- Average Directional Index (ADX) Indicator
- Moving Average Indicator
- Moving Average of Oscillator (OsMA)
- Parabolic Indicator
सर्वश्रेष्ठ मुद्रा व्यापार संकेतक: वॉल्यूम
वॉल्यूम इंडिकेटर्स को बाजार के लेन-देन का मुख्य संकेतक माना जाता है । वॉल्यूम संकेतक एक निश्चित समयावधि के दौरान आदेशों की कुल मात्रा दिखाते हैं । यहां हैं वॉल्यूम इंडिकेटर्स:
- Accumulation/Distribution Indicator
- Money Flow Index (MFI) Indicator
- On-Balance Volume (OBV) Indicator
- Volume Indicator
तकनीकी संकेतक व्यापारियों के संकेतकों को फिर से निकालने का खतरा क्या है? लिए संकेतकों को फिर से निकालने का खतरा क्या है? उपयोगी औजार हैं । वे व्यापार को और अधिक संरचनात्मक और सटीक बनाते हैं ।
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क्या टाइप 1 डायबिटीज मरीजों में इंसुलिन से बढ़ सकता है कैंसर का खतरा? जानिये
डायबिटीज की बीमारी कैंसर होने का प्रमुख संकेतक है जिसके कारण मेटोबोलिज्म में परिवर्तन होता है।
डायबिटीज के मरीज नेचुरल तरीके से इंसुलिन का उत्पादन करने वाले फूड्स का सेवन करें।photo-freepik
डायबिटीज एक क्रोनिक स्थिति है। यानी एक बार अगर किसी को हो जाए तो यह आमतौर पर हमेशा उसके साथ रहती है। डायबिटीज बेहद खतरनाक बीमारी है जिसमें कई अन्य बीमारियों के होने का जोखिम बढ़ जाता है। डायबिटीज में पैनक्रियाज से निकलने वाला हार्मोन इंसुलिन बहुत कम बनाता है या फिर बनाता ही नहीं है। इंसुलिन नहीं होने के कारण खून में ब्लड शुगर जमा होने लगती है जिसके कारण किडनी, हार्ट, नसें और आंखों से संबंधित बीमारियों होती है। चूंकि टाइप 1 डायबिटीज में इंसुलिन बनता ही नहीं है, इसलिए संकेतकों को फिर से निकालने का खतरा क्या है? इस बीमारी से पीड़ित लोगों को इंसुलिन का इंजेक्शन लेना पड़ता है। अब सवाल यह है कि क्या इंसुलिन लेने से कैंसर का जोखिम बढ़ जाता है।
इंसुलिन लेने वालों में कैंसर का जोखिम संकेतकों को फिर से निकालने का खतरा क्या है? बढ़ा:
हाल ही में जामा स्टडी में प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक टाइप 1 डायबिटीज के मरीजों में इंसुलिन का इंजेक्शन लेने के बाद कैंसर के जोखिम को देखा गया है, जो चिंता का विषय है। दरअसल, स्टडी में डायबिटीज मरीजों के पुराने रिकॉर्ड को खंगाला गया। इसमें टाइप 1 डायबिटीज के मरीजों में कैंसर के साथ संबंधों की पड़ताल की गई। अध्ययन में टाइप 1 डायबिटीज से पीड़ित 1303 लोगों के रिकॉर्ड से 28 साल का लेखा जोखा निकाला गया।
अध्ययन में देखा गया कि 28 सालों के दौरान इन मरीजों को किन-किन परेशानियों से गुजरना पड़ा। इसमें स्मोकिंग, अल्कोहल, दवाई, पारिवारिक इतिहास जैसे 150 जोखिमों पर भी बारीक नजर डाली गई। अध्ययन के नतीजे चौंकाने वाले थे। अध्ययन में पाया गया कि 1303 मरीजों में से 93 ने कैंसर का इलाज किया। इसका मतलब यह हुआ कि टाइप 1 मरीजों में से प्रत्येक एक हजार में प्रत्येक साल 2.8 प्रतिशत को कैंसर हुआ। इन 93 मरीजों में 57 महिलाएं थीं और 36 पुरुष थे। इनमें से 8 लोगों को टाइप 1 डायबिटीज के होने के 10 साल के अंदर कैंसर हुआ। इसके बाद 31 लोगों को 11 से 20 साल के अंदर और 54 लोगों को 21 से 28साल के अंदर कैंसर हुआ।
अभी इसे मानना जल्दबाजी:
तो क्या यह मान लिया जाए कि टाइप 1 डायबिटीज मरीजों को कैंसर होने का जोखिम ज्यादा है। वोकहार्ट्ड अस्पताल मीरा रोड के इंटरनल मेडिसीन के डॉ. अनिकेत मुले कहते हैं, डायबिटीज और कैंसर क्रोनिक स्थिति है। पिछले कुछ सालों से इन दोनों बीमारियों का बोझ भारत में बढ़ा है। उन्होंने कहा कि मोटापा डायबिटीज और कैंसर के प्रमुख कारकों में से एक है।
इसके कारण आज दुनिया में अधिकांश लोगों की मौत होती है। हालांकि यह बात सही है कि डायबिटीज कैंसर के होने का प्रमुख संकेतक है। इसके कारण मेटोबोलिज्म में परिवर्तन होता है जिससे कई सारी शरीर में जटिलताएं आती हैं। लेकिन जैसा कि स्टडी में कहा गया कि इंसुलिन इंजेक्शन के कारण कैंसर का जोखिम बढ़ा है, इसे पूरी तरह से सच मान लेना जल्दबाजी होगी।